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इंडियन एयर फ़ोर्स: छह पायलटों के साथ हुई शुरुआत से आजतक का सफर



इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान 26 जनवरी 2022 को राजपथ पर आयोजित भारत के 73वें गणतंत्र दिवस परेड के दौरान आकाश में फ्लाई-पास्ट करते हुए….मेंआधिकारिक रूप से भारतीय वायुसेना 8 अक्तूबर, 1932 को अस्तित्व में आई थी. उसी दिन छह भारतीय कैडेटों को रॉयल एयर फ़ोर्स कॉलेज क्रॉमवेल से कोर्स पूरा कर लेने के बाद ‘किंग्स कमीशन’ या आधिकारिक ओहदा मिला था.इनमें से पाँच कैडेट पायलट बने थे और छठे कैडेट को ग्राउंड ड्यूटी आफ़िसर की ज़िम्मेदारी दी गई थी. इन पाँच पायलटों में से एक थे सुब्रतो मुखर्जी, जो बाद में भारतीय वायुसेना के प्रमुख बने.इनमें से एकमात्र मुस्लिम पायलट थे एबी अवान जो आज़ादी के बाद पाकिस्तान चले गए थे.एक अप्रैल, 1933 को ड्रिग रोड, कराची में भारतीय वायुसेना की पहली स्क्वॉड्रन का गठन किया गया था. इस स्क्वॉड्रन में सिर्फ़ चार वेस्टलैंड जहाज़ शामिल थे.वायुसेना का पहला इस्तेमालइमेज स्रोत, Emmanuel DUNAND / AFPइमेज कैप्शन, भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान संयुक्त सैन्य अभ्यास ‘एक्सरसाइज गरुड़ VII’ के दौरान हवा में ईंधन भरने का अभ्यास करते हुए. तीन साल के प्रशिक्षण के बाद इस स्क्वॉड्रन को रॉयल एयर फ़ोर्स की मदद करने और सीमांत प्रांत के कबायली विद्रोहियों के ख़िलाफ़ ब्रिटिश सेना के ऑपरेशन में सहायता करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी.पीवीएस जगनमोहन और समीर चोपड़ा अपनी किताब ‘द इंडिया-पाकिस्तान एयर वॉर ऑफ़ 1965’ में लिखते हैं, “इस स्क्वॉड्रन को मीरनशाह में रखा गया था. कई पायलट फ़ोर्स लैंडिंग की वजह से हताहत हुए थे. उनमें से एक थे सिख पायलट अर्जन सिंह जिन्हें मीरनशाह से रज़माक के बीच उड़ान भरने के दौरान एक कबायली की राइफ़ल से चलाई गई गोली लगी और उन्हें अपने विमान को ज़मीन पर उतारना पड़ा था.”लाइसेंस वालों को वायुसेना में शामिल करने का प्रस्तावदूसरा विश्व युद्ध शुरू होने के बाद रिसालपुर में तैनात रॉयल एयर फ़ोर्स के स्क्वॉड्रन को भारतीय वायुसेना के एयर क्रू को ट्रेनिंग देने की ज़िम्मेदारी दी गई.कमर्शियल पायलट का लाइसेंस रखने वाले लोगों को भारतीय वायुसेना में भर्ती करने का प्रस्ताव दिया गया. इस तरह के करीब सौ पायलट इंडियन एयरफ़ोर्स वॉलंट्री रिज़र्व में शामिल हुए, इसमें शामिल होने वालों में पीसी लाल और रामास्वामी राजाराम भी थे जो आज़ादी के बाद भारतीय वायुसेना में शीर्ष पदों पर पहुंचे.कुछ दिनों की ट्रेनिंग के बाद ही इन पायलटों को उस समय बनाई गई कोस्टल डिफेंस फ़्लाइट में तैनात कर दिया गया और उनको वापिती, हार्ट और ऑडेक्स जैसे असैनिक विमान उड़ाने के लिए कहा गया.उनको समुद्री तट पर निगरानी रखने और जल व्यापारिक मार्ग में जलपोतों के समूह को ऊपर से एयर कवर देने की ज़िम्मेदारी दी गई.सेना के अफ़सर भी शामिल किए गए वायुसेना मेंइमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, भारतीय पायलटों का पहला दल जो 8 अक्टूबर 1940 को ब्रिटेन पहुंचा था ताकि रॉयल एयर फोर्स के साथ उड़ान भर सकें.इसके बावजूद पायलटों की इतनी कमी थी कि सेना के अफ़सरों से कहा गया कि अगर उनकी वायुसेना में ज़रा भी दिलचस्पी है तो उन्हें विमान उड़ाने की ट्रेनिंग दी जा सकती है.20 सितंबर, 1938 को सेना के तीन लेफ़्टिनेंटों ने वायुसेना में शामिल होने की दिलचस्पी दिखाई.अंचित गुप्ता अपने लेख ‘सैकेंडेड टू द स्काइज़, द आर्मी ऑफ़िसर्स हू हेल्प्ड बिल्ड द इंडियन एयरफ़ोर्स’ में लिखते हैं, “ये तीन अफ़सर थे मोहम्मद ख़ाँ जंजुआ,आत्माराम नंदा और बुरहानुद्दीन. उन्होंने थलसेना की अपनी वरिष्ठता बरकरार रखी लेकिन भारतीय वायुसेना के लिए पूरी तरह से काम करने लगे. उस समय भारत में कोई भी फ़्लाइंग स्कूल काम नहीं कर रहा था, इसलिए उन्हें ट्रेनिंग के लिए मिस्र भेजा गया. भारत लौटने पर जंजुआ को स्क्वॉड्रन नंबर-वन में तैनात किया गया. विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया और उन्हें वहां पहले ही दिन ग्रुप कैप्टन बना दिया गया. कुछ ही दिनों में वो एयर कॉमोडोर बन गए और बाद में उन्होंने पाकिस्तान के कार्यवाहक वायुसेनाध्यक्ष का पद भी संभाला.”भारतीय वायुसेना का विस्तारइमेज स्रोत, Central Press/Hulton Archive/Getty Images)इमेज कैप्शन, भारतीय पायलट द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान स्कॉटलैंड स्थित एक रॉयल एयर फोर्स स्टेशन पर प्रशिक्षण लेते हुए.नंदा आजादी के बाद कानपुर में एयर रिपेयर डिपो के प्रमुख बन गए. सन 1958 में उन्हें भारतीय वायुसेना का उप-प्रमुख बनाया गया. बरहानुद्दीन किन्ही कारणों से सन 1941 में थल सेना में वापस चले गए. दूसरे विश्व युद्ध में युद्धबंदी बनने के बाद वो सुभाष चंद्र बोस के कहने पर ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ में शामिल हो गए.सन 1941 में जापान के विश्व युद्ध में शामिल होने के बाद भारतीय वायुसेना के विस्तार में तेज़ी आई. लाहौर के पास वाल्टन और बाला में फ़्लाइंग स्कूल खोले गए और रिसालपुर और पेशावर में दो ट्रेनिंग स्कूल भी खोले गए.भारतीय वायुसेना के स्क्वॉड्रन की संख्या दो से बढ़कर दस हो गई. एक स्क्वॉड्रन में अमूमन 12 विमान होते हैं लेकिन यह संख्या कम या ज़्यादा भी हो सकती है.दूसरे विश्व युद्ध में भारतीय वायुसेनाइमेज स्रोत, Universal Images Group via Getty Imagesइमेज कैप्शन, भारतीय वायुसेना के दो पायलट अमेरिका निर्मित वल्टी ए-31 बॉम्बर के साथ पोज़ देते हुए. ये तस्वीर उस एयर बेस की है जहां से उन्होंने बर्मा अभियान के दौरान जापानी सैन्यबलों पर हमले किए थे. बर्मा के मोर्चे पर भारतीय वायुसेना को जापान के मुकाबले कम शक्ति के विमान उड़ाने के लिए दिए गए. पीवीएस जगनमोहन और समीर चोपड़ा लिखते हैं, “पूरे विश्व युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना को वो विमान उड़ाने के लिए दिए गए थे जिन्हें रॉयल एयर फ़ोर्स ने रिजेक्ट कर दिया था. युद्ध समाप्ति से कुछ समय पहले ही भारतीय वायुसेना को आधुनिक स्पिटफ़ायर विमान उड़ाने के लिए मिले.”भारत के सेनाध्यक्ष फ़ील्ड मार्शल स्लिम ने भारतीय वायुसेना की तारीफ़ करते हुए लिखा, “मैं भारतीय वायुसेना के प्रदर्शन से बहुत प्रभावित हुआ हूँ. जोड़ों में उड़ते हुए भारतीय पायलटों ने पुराने हरीकेन विमानों के साथ अपने से कहीं बेहतर जापानी विमानों का सामना किया.”विश्व युद्ध की समाप्ति पर भारतीय पायलटों को एक डीएसओ, 22 डीएफ़सी और कई अन्य वीरता पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. पूरे युद्ध में भारतीय वायुसेना के 60 पायलट एक्शन में मारे गए.वायुसेना ने उतारे श्रीनगर में भारतीय सैनिकइमेज स्रोत, Keystone/Hulton Archive/Getty Images)इमेज कैप्शन, भारतीय सैनिक एक एयरफील्ड पर भारतीय वायुसेना के 21वें वर्षगांठ समारोह में भाग लेते हुए.विभाजन के बाद भारत के हिस्से में सात फ़ाइटर और एक ट्रांसपोर्ट स्क्वॉड्रन आई जबकि पाकिस्तान को दो फ़ाइटर और एक ट्रांसपोर्ट स्क्वॉड्रन मिली.भारतीय वायुसेना के पहले प्रमुख थे एयर मार्शल सर टॉमस एमहर्स्ट. उसके बाद एयर मार्शल एवलॉ चैपमैन और सर जेरल्ड गिब्स भारतीय वायुसेना के प्रमुख बने.आज़ादी के बाद भारतीय वायुसेना का पहला एक्शन 20 अक्तूबर को कश्मीर में हुआ, भारतीय वायुसेना ने महाराजा हरि सिंह के अनुरोध पर श्रीनगर में भारतीय सैनिक उतारे.दिल्ली के पालम हवाई अड्डे से उड़ान भरकर 27 अक्तूबर की सुबह साढ़े नौ बजे भारत सेना की एक टुकड़ी श्रीनगर हवाई-अड्डे पर उतर चुकी थी. ऐसा करना बहुत जोखिम का काम था क्योंकि भारतीय वायुसेना को ये तक पता नहीं था कि श्रीनगर हवाई-अड्डा सुरक्षित भी है या नहीं या उस पर पाकिस्तानी हमलावरों का क़ब्ज़ा तो नहीं हो गया है.शाम होते-होते भारतीय वायुसेना और सिविल डकोटा विमानों ने श्रीनगर हवाई-अड्डे पर सिख रेजिमेंट की पहली बटालियन के सैनिक उतार कर हवाई-अड्डे पर नियंत्रण कर लिया था.कश्मीर ऑपरेशन में वायुसेना की भूमिकालेफ़्टिनेंट जनरल एलपी सेन अपनी किताब ‘स्लेंडर वाज़ द थ्रेड’ में लिखते हैं, “28 अक्तूबर को भारतीय वायुसेना के अंबाला बेस से उड़ान भरकर टेम्पेस्ट विमानों ने पाटन में घुसपैठियों के ठिकानों पर बम गिराए थे. दो दिन बाद स्पिटफ़ायर विमान भी श्रीनगर पहुंच गए थे. सात नवंबर को शलातेंग की लड़ाई में सेना और वायुसेना ने मिलकर पाकिस्तानी हमले को नाकाम कर दिया था. टेम्पेस्ट विमानों के हमलों ने घुसपैठियों को उरी तक पीछे जाने के लिए मजबूर कर दिया था. श्रीनगर और बारामूला के बीच घुसपैठियों के 147 शव मिले थे. ये सब भारतीय युद्धक विमानों के शिकार हुए थे.”पुंछ में उस समय न तो कोई हवाई-अड्डा था और न ही हवाई पट्टी इसलिए सैनिकों के लिए हथियार, खाद्य सामग्री और दवाएं ऊपर से विमानों से गिराई जाती थीं.पीसी लाल अपनी आत्मकथा ‘माई इयर्स विद द आईएएफ़’ में लिखते हैं, “लेफ़्टिनेंट कर्नल प्रीतम सिंह को पुंछ में हवाई पट्टी बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई थी ताकि वहाँ डकोटा विमान लैंड कर सकें. भारतीय सैनिकों ने शरणार्थियों की मदद से परेड ग्राउंड पर छह दिनों के अंदर 600 गज़ लंबी हवाई-पट्टी बनाई थी.”इस निर्माण कार्य पर वायुसेना के विमान ऊपर से निगरानी रखे हुए थे ताकि नज़दीकी इलाकों से दुश्मन निर्माण कार्य में बाधा न डाल सके.दिसंबर के दूसरे हफ़्ते में हवाई-पट्टी के तैयार हो जाने के बाद एयर कोमोडोर मेहर सिंह ने अपने पहले डकोटा के साथ वहाँ लैंड किया था. उस विमान में उनके साथ एयर वाइस मार्शल सुब्रतो मुखर्जी भी सवार थे.उस समय एक दिन में करीब 12 बार डकोटा विमान रसद के साथ वहाँ उतरते थे और वापसी की फ़्लाइट में हताहत सैनिकों और शरणार्थियों को अपने साथ लेकर जाते थे.रात में लैंडिंगउस समय भारतीय सेना को दो 25 पाउंडर माउंटेड गन की ज़रूरत थी. उन गनों को ला रहे डकोटा विमानों के लिए वहाँ दिन में लैंड करना बहुत मुश्किल हो रहा था क्योंकि घुसपैठिए विमान-पट्टी के बिल्कुल नज़दीक से उन पर नज़र रखे हुए थे और वो उन पर गोली चला सकते थे.पीसी लाल लिखते हैं, “एयर कोमोडोर मेहर सिंह ने तय किया कि वो रात को तेल वाले लैंपों की रोशनी में वहाँ लैंड करेंगे. मेहर सिंह ने ही तय किया कि पाँच डकोटा विमानों को बमवर्षकों की तरह इस्तेमाल किया जाए. मेहर सिंह को इसके लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया गया.”जेट विमान इस्तेमाल करने वाली एशिया की पहली वायुसेनाउन्हीं दिनों दक्षिण भारत में निज़ाम हैदराबाद के ख़िलाफ़ पुलिस एक्शन चल रहा था. यहाँ भी वायुसेना के टेम्पेस्ट और डकोटा विमानों ने सेना की सहायता करते हुए निज़ाम के सैनिकों पर बम और इश्तेहार भी नीचे गिराए.युद्ध जैसी स्थिति समाप्त होने के बाद भारतीय वायुसेना का विस्तार किया गया और ब्रिटेन से 100 स्पिटफ़ायर और टेम्पेस्ट युद्धक विमान खरीदे गए. नवंबर, 1948 में ब्रिटेन से वैम्पायर विमान आयात करने के बाद भारतीय वायुसेना जेट विमान इस्तेमाल करने वाली पहली एशियाई वायुसेना बन गई.23 वर्ष बाद 1971 की लड़ाई तक इन विमानों का इस्तेमाल किया जाता रहा.एक अप्रैल, 1954 को एयर मार्शल सुब्रतो मुखर्जी भारतीय वायुसेना के पहले भारतीय चीफ़ बने.उनके नेतृत्व के दौरान भारतीय वायुसेना ने कैनबरा और नेट युद्धक विमानों को शामिल किया.सन 1961 में पहली बार छह भारतीय विमानों को संयुक्त राष्ट्र मिशन में कॉन्गो में इस्तेमाल किया गया. उन्हीं दिनों गोवा की आज़ादी के लिए ऑपरेशन विजय की शुरुआत हुई.पुर्तगाल की सेना के पास कोई लड़ाकू विमान नहीं थे. वायुसेना के कैनबरा, हंटर्स और वैंपायर विमानों ने बिना रोक-टोक के अपना काम अंजाम दिया.डेबोलिम और दीव हवाई-पट्टी पर बम गिराकर उन्हें काम करने लायक नहीं छोड़ा गया.पूरे आपरेशन के दौरान पुर्तगाली सेना ने एक बार भी विमानभेदी तोपों का इस्तेमाल नहीं किया.चीन के साथ युद्ध में वायुसेना की भूमिकाइमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, 1954 में चीन के विदेश मंत्री चाऊ एन-लाइ अपने भारत दौरे पर जवाहरलाल नेहरू के साथ भारतीय सेना और वायुसेना का गार्ड ऑफ़ ऑनर लेते हुए 1962 के भारत चीन युद्ध में वायुसेना ने हमले में भूमिका तो नहीं निभाई लेकिन उसे लद्दाख़ और नेफ़ा के दूर-दराज़ के इलाकों में तैनात भारतीय सैनिकों को रसद पहुंचाने की ज़िम्मेदारी ज़रूर दी गई.पूरे युद्ध के दौरान वायुसेना के हेलिकॉप्टरों ने घायल सैनिकों को उठा कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया. लद्दाख में अक्साई चिन में सैनिकों को पहुंचाने की ज़िम्मेदारी भी भारतीय वायुसेना को दी गई.चुशुल में इतने जहाज़ों ने लैंड किया कि वहाँ स्टील की प्लेट से बनाई गई हवाई-पट्टी करीब-करीब टूट ही गई लेकिन कई सैन्य विशेषज्ञों ने वायुसेना के आक्रामक इस्तेमाल न करने पर सवाल उठाए, लेकिन इस लड़ाई से वायुसेना को जो सबक मिले उसका इस्तेमाल उन्होंने 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ़ लड़ाई में किया.बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.



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