इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, शाखा में ही संघ के सदस्यों को वैचारिक शिक्षा दी जाती है…..मेंAuthor, राघवेंद्र रावपदनाम, बीबीसी संवाददाता, दिल्लीX, @raghvendra_rao23 मार्च 2025अपडेटेड 1 अक्टूबर 2025साल 2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के 100 साल पूरे करने जा रहा है.इन सौ सालों में शायद ही ऐसा कोई वक़्त रहा जब संघ, उसकी विचारधारा या उसकी गतिविधियां सुर्ख़ियों में न रही हों.साल 2014 में केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद से संघ का राजनीतिक प्रभाव कई गुना बढ़ गया है और संघ अब तक की अपनी सबसे मज़बूत स्थिति में नज़र आता है.लेकिन संघ के इतिहास, उसके भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने पर ज़ोर और अल्पसंख्यकों के प्रति उसके रवैए को लेकर सवाल उठते रहे हैं. आइए तलाशते हैं, संघ से जुड़े कुछ अहम सवालों के जवाब.1. आरएसएस क्या है और इसकी स्थापना कब हुई?इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, हाल ही में संघ के एक नेता ने कहा कि देश में क़रीब एक करोड़ स्वयंसेवक हैं.आम तौर पर आरएसएस या संघ के नाम से जाना जाने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक हिंदू राष्ट्रवादी संगठन है, जिसकी स्थापना साल 1925 में महाराष्ट्र के नागपुर में डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी.माना जाता है कि हेडगेवार हिंदू राष्ट्रवादी विचारक विनायक दामोदर सावरकर के विचारों से प्रभावित थे.संघ को अक्सर दुनिया का सबसे बड़ा स्वैच्छिक या वॉलंटरी संगठन कहा जाता है, लेकिन आरएसएस से कितने लोग जुड़े हुए हैं, इसकी कोई आधिकारिक संख्या उपलब्ध नहीं है.हाल ही में संघ के एक नेता ने कहा कि देश में क़रीब एक करोड़ स्वयंसेवक हैं.आरएसएस ख़ुद को एक ग़ैर-राजनीतिक सांस्कृतिक संगठन बताता है, लेकिन राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के ‘अभिभावक’ की भूमिका निभाता है.2. आरएसएस के मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य क्या हैं?आरएसएस के मुताबिक़, वो एक सांस्कृतिक संगठन है जिसका मक़सद हिंदू संस्कृति, हिंदू एकता और आत्मनिर्भरता के मूल्यों को बढ़ावा देना है. संघ का कहना है कि वो राष्ट्र सेवा और भारतीय परंपराओं और विरासत के संरक्षण जैसे विषयों पर ज़ोर देता है. ग़ैर-राजनीतिक होने के दावों के बावजूद संघ के अनेक लोग चुनावी राजनीति में सक्रिय रहे हैं.इनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक बहुत सारे नाम गिनाए जा सकते हैं.संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर अपनी किताब ‘आरएसएस: 21वीं सदी के लिए रोडमैप’ (पेज 9) में कहते हैं कि संघ समाज पर शासन करने वाली एक अलग शक्ति नहीं बनना चाहता और उसका मुख्य उद्देश्य समाज को मज़बूत करना है. इसी किताब में आंबेकर लिखते हैं कि ‘संघ समाज बनेगा’ एक नारा है, जो आरएसएस में बार-बार लगाया जाता है.ये भी पढ़ें3. शाखा क्या है और आरएसएस का सदस्य कौन और कैसे बन सकता है?इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, शाखा में ही संघ के सदस्यों को वैचारिक शिक्षा दी जाती है.शाखा संघ की आधारभूत संगठनात्मक इकाई है, जो उसे ज़मीनी स्तर पर एक बड़ी मौजूदगी देती है.शाखा वो जगह है, जहाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों को वैचारिक और शारीरिक रूप से प्रशिक्षित किया जाता है. ज़्यादातर शाखाएं हर दिन सुबह और कभी-कभी शाम को चलाई जाती हैं. कुछ इलाक़ों में ये शाखाएं हफ़्ते में कुछ दिन चलती हैं.आरएसएस के मुताबिक़, भारत में 83 हज़ार से ज़्यादा शाखाएं हैं. शाखा में शारीरिक व्यायाम और खेलों के साथ-साथ टीमवर्क और नेतृत्व कौशल सुधारने के लिए डिज़ाइन की गई गतिविधियां होती हैं और ‘मार्चिंग’ और ‘आत्मरक्षा’ की तकनीक भी सिखाई जाती है. शाखा में ही संघ के सदस्यों को वैचारिक शिक्षा दी जाती है. शाखा में ही उन्हें हिंदुत्व, हिन्दू राष्ट्रवाद, और आरएसएस के अन्य मूल सिद्धांतों के बारे में सिखाया जाता है. आरएसएस देश भर में अपनी उपस्थिति बढ़ाने और बनाए रखने के लिए शाखाओं पर ही निर्भर करता है.इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, आरएसएस के मुताबिक़, भारत में 83 हज़ार से ज़्यादा शाखाएं हैं. (प्रतीकात्मक तस्वीर)राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कहना है कि उसकी कोई औपचारिक सदस्यता नहीं है. जो लोग आरएसएस की शाखाओं में भाग लेते हैं, उन्हें स्वयंसेवक कहा जाता है और संघ के मुताबिक़ कोई भी हिंदू पुरुष स्वयंसेवक बन सकता है. आरएसएस के मुताबिक़, कोई भी व्यक्ति संघ की निकटतम ‘शाखा’ से संपर्क कर सकता है और स्वयंसेवक बन सकता है. स्वयंसेवक बनने के लिए कोई शुल्क, पंजीकरण फॉर्म या औपचारिक आवेदन नहीं देना होता है. संघ का कहना है कि जो भी व्यक्ति सुबह या शाम दैनिक शाखा में भाग लेना शुरू करता है, वो संघ का स्वयंसेवक बन जाता है.साथ ही संघ ये भी कहता है कि अगर किसी को उनके आस-पास चल रही शाखा या स्वयंसेवक के बारे में जानकारी नहीं है, तो वो उसकी वेबसाइट पर एक फॉर्म भर सकता है, जिसके बाद संघ में शामिल होने के लिए निकटतम शाखा या स्वयंसेवक के बारे में जानकारी उपलब्ध करवाई जाती है.इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, संघ का कहना है कि महिलाएँ राष्ट्र सेविका समिति में शामिल हो सकती हैं.4. क्या महिलाएँ आरएसएस की सदस्य बन सकती हैं?महिलाएं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदस्य नहीं बन सकती. आरएसएस के मुताबिक़, जब हिंदू महिलाओं के लिए भी इसी तरह के संगठन की आवश्यकता महसूस की गई तो महाराष्ट्र के वर्धा की एक सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मीबाई केलकर ने आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार से संपर्क किया और उनसे विचार-विमर्श करने के बाद साल 1936 में राष्ट्र सेविका समिति शुरू करने का फ़ैसला किया गया.संघ का कहना है कि उसका और राष्ट्र सेविका समिति का उद्देश्य एक ही था, इसलिए महिलाएँ राष्ट्र सेविका समिति में शामिल हो सकती हैं.ये भी पढ़ें5. आरएसएस की फंडिंग कैसे होती है?इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, ये इल्ज़ाम लगाया जाता है कि संघ की फंडिंग को लेकर कोई पारदर्शिता नहीं है.राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक रजिस्टर्ड या पंजीकृत संगठन नहीं है. इसी वजह से अक्सर ये आलोचना की जाती है कि उसमें पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है. ये इल्ज़ाम भी लगाया जाता है कि संघ की फंडिंग को लेकर कोई पारदर्शिता नहीं है, क्योंकि संघ इनकम टैक्स या आयकर रिटर्न फाइल नहीं करता.संघ का कहना है कि वो एक आत्मनिर्भर संगठन है और संघ के काम के लिए संगठन के बाहर से कोई पैसा नहीं लिया जाता, भले ही वो स्वेच्छा से दिया गया हो. संघ ये भी दावा करता है कि वो अपना खर्चा उस गुरुदक्षिणा से पूरा करता है, जो साल में एक बार संघ के स्वयंसेवक भगवा ध्वज को गुरु मानकर देते हैं.संघ ये भी कहता है कि उसके स्वयंसेवक बहुत-सी समाज सेवा की गतिविधियाँ करते रहे हैं और उन्हें समाज से सहायता मिलती है और इन सामाजिक कार्यों के लिए स्वयंसेवकों ने ट्रस्ट बनाए हैं जो क़ानून के दायरे में रहकर पैसा इकठ्ठा करते हैं और अपने खाते चलाते हैं.अतीत में कांग्रेस पार्टी ने अयोध्या में कुछ विवादास्पद ज़मीन के सौदों के सन्दर्भ में आरएसएस के रजिस्टर्ड न होने और इनकम टैक्स के दायरे से बाहर होने का मुद्दा उठाया था.इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, आरएसएस के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत के मुताबिक़, संघ एक ‘बॉडी ऑफ़ इंडिविजुअल्स’ यानी व्यक्तियों का एक समूह है.आरएसएस के रजिस्टर्ड न होने के बारे में आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत का कहना है कि जब संघ शुरू हुआ था, तो स्वतंत्र भारत की सरकार नहीं थी और स्वतंत्रता के बाद ऐसा कोई क़ानून नहीं बना, जिसमें कहा गया कि हर संस्था को रजिस्ट्रेशन कराना होगा. भागवत के मुताबिक़, संघ एक ‘बॉडी ऑफ़ इंडिविजुअल्स’ यानी व्यक्तियों का एक समूह है और इस वजह से उस पर टैक्स नहीं लगाया जा सकता. भागवत ये भी कहते हैं कि भले ही सरकार संघ से हिसाब-किताब नहीं मांगती, लेकिन अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए संघ एक-एक पाई का हिसाब रखता है, हर साल ऑडिट करता है और अगर सरकार कभी मांगे तो संघ का हिसाब तैयार है. (भविष्य का भारत – संघ का दृष्टिकोण, पेज 105)इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, संघ की संगठनात्मक व्यवस्था में पूरे देश में 46 प्रांत, उसके बाद विभाग, ज़िले और फिर खंड हैं.(प्रतीकात्मक तस्वीर)6. आरएसएस का संगठनात्मक ढाँचा क्या है?राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सर्वोच्च पद सरसंघचालक का है. सरसंघचालक के बाद सबसे महत्वपूर्ण पद सरकार्यवाह का है, जो संघ का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है और जिसके पास संघ के रोज़ाना के मामलों पर फ़ैसला लेने की शक्तियां होती हैं. फ़िलहाल दत्तात्रेय होसबाले संघ के सरकार्यवाह हैं.इतिहास पर नज़र डालें तो संघ में डॉक्टर हेडगेवार के बाद जो पांच सरसंघचालक बने उनमें से चार सरसंघचालक बनने से पहले सरकार्यवाह थे और एक सह-सरकार्यवाह. सह-सरकार्यवाह की भूमिका संयुक्त सचिव की होती है और एक समय पर संघ में कई सह-सरकार्यवाह हो सकते हैं.संघ की संगठनात्मक व्यवस्था में पूरे देश में 46 प्रांत, उसके बाद विभाग, ज़िले और फिर खंड हैं. संघ के मुताबिक़, 922 ज़िले, 6,597 खंड और 27,720 मंडल में 83,129 दैनिक शाखाएं हैं. हर मंडल में 12 से 15 गांव शामिल हैं.आरएसएस कई संगठनों का समूह है, इन संगठनों को संघ का अनुषांगिक संगठन कहा जाता है, इस पूरे समूह को संघ परिवार कहा जाता है.संघ परिवार में भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, स्वदेशी जागरण मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, राष्ट्रीय सिख संगत, हिन्दू युवा वाहिनी, भारतीय किसान संघ और भारतीय मज़दूर संघ जैसे संगठन शामिल हैं.इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, केशव बलिराम हेडगेवार और माधव सदाशिव गोलवलकर की तस्वीरें.7. आरएसएस के अब तक कितने सरसंघचालक हुए हैं और सरसंघचालक कैसे चुना जाता है?संघ में अब तक छह सरसंघचालक हुए हैं. संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार संघ के पहले सरसंघचालक थे, जो 1925 से 1940 तक इस पद पर रहे. हेडगेवार के निधन के बाद साल 1940 में माधव सदाशिवराव गोलवलकर संघ के दूसरे सरसंघचालक बने और 1973 तक इस पद पर रहे.साल 1973 में गोलवलकर के निधन के बाद बालासाहब देवरस सरसंघचालक बने और 1994 तक इस पद पर रहे. साल 1994 में बिगड़ते स्वास्थ्य की वजह से देवरस ने राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया. राजेंद्र सिंह साल 2000 तक संघ के सरसंघचालक रहे.साल 2000 में के एस सुदर्शन संघ के नए सरसंघचालक बने और 2009 तक इस पद पर बने रहे. साल 2009 में सुदर्शन ने मोहन भागवत को अपना उत्तराधिकारी चुना. भागवत संघ के छठे सरसंघचालक हैं.संघ में सरसंघचालक चुनने के लिए कोई प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती और इस बात के लिए भी उसकी आलोचना होती है. डॉ. हेडगेवार के बाद जितने भी सरसंघचालक बने हैं, उन्हें उनसे पहले वाले सरसंघचालक ने ही नियुक्त किया. सरसंघचालक का कार्यकाल आजीवन होता है और वह अपना उत्तराधिकारी चुनता है.मोहन भागवत कहते हैं कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि डॉ. हेडगेवार और गोलवलकर जैसे “महानुभावों द्वारा सुशोभित पद हमारे लिए श्रद्धा का विषय है.”इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, मोहन भागवत आरएसएस के छठे सरसंघचालक हैं.भागवत कहते हैं, “मेरे बाद सरसंघचालक कौन होगा, ये मेरी मर्ज़ी पर है और मैं सरसंघचालक कब तक रहूँगा, ये भी मेरी मर्ज़ी पर है. लेकिन मैं ऐसा हूँ, तो संघ ने एक होशियारी बरती कि मेरा अधिकार संघ में क्या है, कुछ नहीं है.”8. आरएसएस पर कब-कब प्रतिबंध लगाया गया और क्यों?इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर.आरएसएस पर पहली बार प्रतिबंध साल 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद लगाया गया था. तीस जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी थी. उस समय की सरकार को शक था कि महात्मा गाँधी की हत्या में संघ की भूमिका थी और गोडसे आरएसएस का सदस्य था.आरएसएस को सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा देने वाला संगठन मानते हुए सरकार ने उस पर फरवरी 1948 में प्रतिबंध लगा दिया और संघ सरसंघचालक गोलवलकर को गिरफ़्तार कर लिया.अगले एक साल तक गोलवलकर और सरकार के बीच में इस प्रतिबंध को हटाने के बारे में कई बार चर्चा हुई. सरकार का कहना था कि आरएसएस को लिखित और प्रकाशित संविधान के तहत काम करना चाहिए, अपनी गतिविधियों को सांस्कृतिक क्षेत्र तक सीमित रखना चाहिए, उसे हिंसा और गोपनीयता को छोड़ना चाहिए और भारत के संविधान और राष्ट्रीय ध्वज के प्रति निष्ठा व्यक्त करनी चाहिए. (द आरएसएस: ए मेनेस टू इंडिया, ए जी नूरानी, पेज 375)इसी दौरान सरदार पटेल और गोलवलकर के बीच कई चिट्ठियों का आदान-प्रदान हुआ. इमेज कैप्शन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघआख़िरकार 11 जुलाई, 1949 को सरकार ने एक विज्ञप्ति के ज़रिए कहा, “आरएसएस नेता द्वारा किए गए संशोधन और दिए गए स्पष्टीकरण के मद्देनज़र भारत सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि आरएसएस संगठन को भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा रखते हुए और गोपनीयता से दूर रहते हुए और हिंसा से दूर रहते हुए राष्ट्रीय ध्वज को मान्यता देते हुए एक लोकतांत्रिक, सांस्कृतिक संगठन के रूप में कार्य करने का अवसर दिया जाना चाहिए.” (द आरएसएस: ए मेनेस टू इंडिया, ए जी नूरानी, पेज 390)इसी के साथ साल 1948 में लगाया गया प्रतिबंध हटा लिया गया, लेकिन आरएसएस का कहना है कि ये प्रतिबंध बिना किसी शर्त के हटाया गया था.’राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ शीर्षक किताब को आरएसएस के अखिल भारतीय सहप्रचार प्रमुख नरेंद्र ठाकुर ने संपादित किया है.इस किताब में कहा गया है कि जब 14 अक्टूबर 1949 को बम्बई विधान सभा के एक सत्र के दौरान इस बारे में सवाल पूछा गया तो सरकार ने कहा कि आरएसएस पर प्रतिबन्ध बिना किसी शर्त के हटाया गया और संघ के नेतृत्व ने सरकार को कोई वचन नहीं दिया है. (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण, नरेंद्र ठाकुर, पेज 25)आरएसएस पर दूसरी बार प्रतिबंध साल 1975 में लगाया जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल (इमरजेंसी) की घोषणा की. ये प्रतिबंध साल 1977 में आपातकाल के ख़त्म होने के साथ ही हट गया.साल 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद आरएसएस पर तीसरी बार प्रतिबंध लगाया गया. लेकिन जून 1993 में बाहरी आयोग ने इस प्रतिबंध को अनुचित माना और सरकार को उसे हटाना पड़ा.इमेज कैप्शन, धीरेंद्र झा की बात9. क्या संघ ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया था?राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक बड़ी आलोचना ये की जाती है कि उसने ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा नहीं लिया था. साल 1925 में जब आरएसएस अस्तित्व में आया उस वक़्त स्वतंत्रता आंदोलन पहले से ही ज़ोर पकड़ रहा था.गोलवलकर के बयानों का हवाला देते हुए ये कई बार कहा गया है कि आरएसएस ने साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया था.वहीं, दूसरी तरफ संघ का कहना है कि उसने आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. अपनी किताब में सुनील आंबेकर लिखते हैं कि संघ ने 26 जनवरी 1930 को अपनी सभी शाखाओं में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया था.उनके मुताबिक़, हज़ारों स्वयंसेवकों ने खुले तौर पर स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया और संघ ने खुले तौर पर उनका समर्थन किया था. आंबेकर कहते हैं कि आरएसएस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. धीरेंद्र झा एक जाने-माने लेखक हैं, जिन्होंने आरएसएस पर गहन शोध किया है. हाल ही में संघ के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर पर उनकी किताब प्रकाशित हुई है. इससे पहले वो नाथूराम गोडसे और हिंदुत्व के विषयों पर भी किताबें लिख चुके हैं.वो कहते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन में आरएसएस के हिस्सा लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि आरएसएस का आधारभूत सिद्धांत उन्हें ब्रिटिश विरोधी संघर्ष से अलग ले जा रहा था.धीरेंद्र झा के मुताबिक़, आरएसएस का आधार हिंदुत्व की विचारधारा थी जो “हिन्दुओं को ये बताने की कोशिश कर रही थी कि उनके सबसे बड़े दुश्मन मुसलमान हैं, न कि ब्रितानी सरकार”.इमेज कैप्शन, धीरेंद्र झा की बातधीरेंद्र झा कहते हैं, “साल 1930 में जब गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया तो आरएसएस में भी उथल-पुथल शुरू हुई. आरएसएस का एक धड़ा इस आंदोलन में हिस्सा लेना चाहता था.””हेडगेवार के सामने समस्या थी. संगठन को वो ब्रिटिश-विरोधी लाइन पर नहीं ले जा सकते थे. और न ही वो अपने सदस्यों के सामने कमज़ोर दिखना चाहते थे.””तो उन्होंने साफ़ कर दिया कि संगठन उस आंदोलन में हिस्सा नहीं लेगा. अगर किसी को हिस्सा लेना है तो वो व्यक्तिगत तौर पर ले. मिसाल के तौर पर उन्होंने ख़ुद पद से इस्तीफ़ा दिया और एलबी परांजपे को सरसंघचालक बना दिया और ख़ुद जंगल सत्याग्रह में हिस्सा लिया और गिरफ़्तार हुए.”झा कहते हैं, “आरएसएस का मूल तर्क ब्रिटिश विरोधी बिल्कुल नहीं था बल्कि एक स्तर पर वो ब्रिटिश-समर्थक हो रहा था, क्योंकि वो ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन को विभाजित कर रहा था. वो ऐसा आंदोलन था जिसमें हिंदू मुसलमान दोनों शामिल थे, और आरएसएस केवल हिंदू हितों की बात कर रहा था.”इमेज कैप्शन, नीलांजन मुखोपाध्याय की बातवरिष्ठ पत्रकार और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नामों पर ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ़ द इंडियन राइट’ नाम की किताब लिखी है.वो कहते हैं, “आरएसएस का लक्ष्य औपनिवेशिक शासन से आज़ादी हासिल करना नहीं था. आरएसएस की स्थापना इस्लाम और ईसाई धर्मों के मुक़ाबले हिंदू समाज को मज़बूत करने के विचार से की गई थी. उनका उद्देश्य अंग्रेज़ों को बाहर निकालना नहीं था. उनका लक्ष्य हिंदू समाज को एकजुट करना था, उन्हें एक आवाज़ में बोलने के लिए तैयार करना था.”संघ की आलोचना इस बात के लिए भी की जाती है कि साल 1939 में जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने के बाद डॉ हेडगेवार से मुलाक़ात की कोशिश की और इसके लिए संघ के एक बड़े नेता गोपाल मुकुंद हुद्दार को बोस ने दूत के तौर पर भेजा लेकिन हेडगेवार ने अपनी ख़राब तबीयत की बात कहते हुए मुलाक़ात से मना किया.साल 1979 में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया में गोपाल मुकुंद हुद्दार ने लेख में इस बात का ज़िक्र किया है.पटनायक लिखते हैं, “उस समय डॉक्टरजी आरएसएस के एक प्रमुख पदाधिकारी बाबा साहेब घटाटे के आवास पर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे. जब वे (नेताजी) पहुंचे तब तक हेडगेवारजी नींद में थे, उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली थीं.” पटनायक के मुताबिक़, जब दो प्रचारकों ने डॉ हेडगेवार को नींद से जगाने की कोशिश की तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें ये कहकर रोक दिया कि वो फिर किसी दिन उनसे मिल लेंगे और वहां से चले गए.पटनायक लिखते हैं कि जागने पर जब डॉ हेडगेवार को पता चला कि बोस उनसे मिलने आये थे तो उन्होंने चिंतित होकर अपने लोगों को ये देखने के लिए दौड़ाया कि शायद बोस अभी वहीं हों.पटनायक लिखते है, “लेकिन वह (बोस) वास्तव में चले गए थे और अगले दिन डॉक्टरजी का निधन हो गया. वाकई एक दिल तोड़ने वाली विडंबना!” भागवत के मुताबिक़, “क्रांतिकारियों के साथ भी उन्होंने (हेडगेवार ने) काम किया. वे उस समय स्वतंत्रता आंदोलनों में भी सहभागी हुए” और “वे सुभाष बाबू से मिले थे, सावरकर जी से मिले थे. क्रांतिकारियों से उनका संबंध था ही.” (भविष्य का भारत-संघ का दृष्टिकोण, पेज 17 और 18)इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, नाथूराम गोडसे से दूरी बनाने की कोशिश आरएसएस ने लगातार की है.10. नाथूराम गोडसे और आरएसएस के बीच क्या सम्बन्ध था?राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचनाओं में सबसे गंभीर आलोचना ये है कि महात्मा गाँधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे आरएसएस के सदस्य थे.आरएसएस ने लगातार गोडसे से दूरी बनाने की कोशिश की है और ये कहा है कि जब गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की थी तब वे संघ का हिस्सा नहीं थे इसलिए गांधी की हत्या के लिए आरएसएस को दोष देना ग़लत है.हत्या के बाद चले मुक़दमे में नाथूराम गोडसे ने ख़ुद भी अदालत में कहा था कि वो एक वक़्त पर आरएसएस में थे लेकिन फिर वो आरएसएस को छोड़कर हिंदू महासभा में शामिल हो गए थे.धीरेंद्र झा ने गोडसे पर “गाँधीज़ असैसिन: द मेकिंग ऑफ नाथूराम गोडसे एंड हिज़ आइडिया ऑफ इंडिया” नाम की किताब लिखी है.वो कहते हैं कि सवाल दो ही हैं: गोडसे ने आरएसएस कब छोड़ा और वो हिंदू महासभा में कब शामिल हुए?झा कहते हैं, “हमारे सामने जो आर्काइवल (अभिलेखीय) रिकॉर्ड है वो इशारा करता है कि 1938 में गोडसे हैदराबाद में निज़ाम के इलाक़े में हुए आंदोलन में हिंदू महासभा के नेता के तौर पर गए, तो अब जब वे हिंदू महासभा के नेता के तौर पर वहां गए तो क्या इसका मतलब ये है कि वो आरएसएस छोड़ चुके थे?””महात्मा गांधी की हत्या के बाद जो रिकॉर्ड आरएसएस के नागपुर के मुख्यालय से ज़ब्त किए गए उनमें ये साक्ष्य मौजूद हैं कि साल 1939 और 1940 में आरएसएस की कई सभाओ में गोडसे की मौजूदगी थी. उन दिनों बहुत से आरएसएस के लोग हिंदू महासभा में भी थे और बहुत से हिंदू महासभा के लोग आरएसएस में थे. साल 1947 में जब बॉम्बे पुलिस ने हिंदू महासभा और आरएसएस के लोगों की लिस्ट तैयार की तो उसने पाया कि ओवरलैपिंग है.”इमेज कैप्शन, नीलांजन मुखोपाध्याय की बातझा के मुताबिक़ नाथूराम गोडसे के भाई और गांधी हत्याकांड में सह-अपराधी गोपाल गोडसे जेल से निकलने के बाद ये बात पूरी ज़िंदगी कहते रहे कि नाथूराम गोडसे ने आरएसएस नहीं छोड़ा था.अतीत में कुछ मौकों पर गोडसे परिवार के लोगों के बयान सामने आए जिनमें उन्होंने कहा कि नाथूराम गोडसे अंत तक आरएसएस से जुड़े हुए थे. इन बयानों में इस बात पर भी नाराज़गी जताई गई कि आरएसएस ने नाथूराम गोडसे से दूरी बनाई.नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, “आरएसएस सदस्यता पर आधारित संगठन नहीं है इसलिए इसमें शामिल होने का कोई नियम नहीं है, न ही त्यागपत्र देने की कोई प्रक्रिया है. गोडसे आरएसएस में थे और फांसी पर चढ़ने से पहले जो आख़िरी काम किया वो आरएसएस की प्रार्थना को गाना था. आरएसएस के प्रति उनकी निष्ठा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?””गोडसे अपनी युवावस्था में, अपनी अधेड़ उम्र में, अपने जीवन के अंत तक, आरएसएस की विचारधारा के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध एक स्वयंसेवक थे. वो भले ही आरएसएस के विभिन्न कार्यक्रमों में सक्रिय न रहे हों लेकिन सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए वे आरएसएस का व्यक्ति बने रहे.”इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह.11. आरएसएस और बीजेपी के बीच क्या रिश्ता है?आरएसएस को भारतीय जनता पार्टी की रीढ़ माना जाता है. पिछले तीन लोकसभा चुनावों और कई विधानसभा चुनावों में ये चर्चा आम रही कि संघ के कार्यकर्ताओं की ज़मीनी स्तर पर मौजूदगी की बदौलत भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक फ़ायदा मिला और पार्टी चुनाव जीतकर सरकारें बनाने में कामयाब रही.संघ के नेताओं ने बार-बार कहा है कि वो दलीय राजनीति में शामिल नहीं हैं. लेकिन, ये भी कोई छुपी हुई बात नहीं है कि संघ से जुड़े बहुत से लोग अब भारतीय जनता पार्टी में हैं और सक्रिय राजनीति का हिस्सा हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान और सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी जैसे सभी नेता अपने शुरुआती दौर से ही आरएसएस का हिस्सा रहे हैं.उस वक़्त छपी ख़बरों के मुताबिक़, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, मनोहर पर्रिकर और जेपी नड्डा जैसे बड़े नेता इस बैठक में शामिल हुए थे.इस बात की भी चर्चा रही थी कि इस बैठक में आरएसएस ने भाजपा को अर्थव्यवस्था, शिक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर नीतिगत सुझाव भी दिए. तीसरे दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस बैठक में पहुंचे और उस वक़्त मीडिया में छपी ख़बरों के मुताबिक़ उन्होंने बैठक में कहा था कि उन्हें स्वयंसेवक होने पर गर्व है.इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, संघ के स्वयंसेवकों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.इस तीन दिवसीय आयोजन की यह कहकर आलोचना की गई कि लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकार के मंत्री एक ग़ैर-सरकारी संस्था के आगे अपने कामकाज की रिपोर्ट कैसे पेश कर सकते हैं, आलोचकों का कहना था कि यह देश की व्यवस्था, संविधान और नियमों के हिसाब से ग़लत है.इस बैठक के बाद मीडिया रिपोर्ट्स में आरएसएस के सर-कार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले का ये बयान भी छपा जिसमें उन्होंने कहा, “गोपनीयता कहाँ है? हम भी अन्य लोगों की तरह इस देश के नागरिक हैं. मंत्री सम्मेलनों में बात करते हैं, मीडिया को जानकारी देते हैं, ठीक इसी तरह से उन्होंने हमसे बात की.”कुछ साल पहले आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत से जब पूछा गया कि अगर संघ और राजनीति का संबंध नहीं है तो भाजपा में संगठन मंत्री हमेशा संघ ही क्यों देता है? इस पर भागवत ने कहा कि जो भी राजनीतिक दल उनसे संगठन मंत्री मांगता है, संघ उसे देता है. भागवत ने कहा, “अभी तक और किसी ने माँगा नहीं है (बीजेपी के अलावा). मांगेंगे तो हम विचार करेंगे. काम अच्छा है तो ज़रूर देंगे.” साथ ही, भागवत ने कहा कि संघ की एक नीति है और संघ की बढ़ती ताक़त का फ़ायदा उन राजनीतिक दलों को मिलता है जो उस नीति का समर्थन करते हैं. “जो इसका लाभ ले जा सकते हैं, ले जाते हैं. जो नहीं ले सकते, वो रह जाते हैं.”संघ का कहना है कि चुनावों के दौरान जब उम्मीदवारों को टिकट देने के मामले में भाजपा संघ का आकलन मांगती है तो संघ सटीकता से वो जानकारी उपलब्ध कराता है क्योंकि स्वयंसेवक ज़मीनी स्तर पर काम करते हैं.लेकिन इसके अलावा संघ न ही चुनावी फ़ैसलों पर कोई असर डालता है और न ही चुनावी रणनीति निर्धारित करता है. (द आरएसएस रोडमैप्स फॉर द 21स्ट सेंचुरी, पेज 220)सुनील आंबेकर के मुताबिक़, “सिर्फ़ इसलिए कि किसी भी भाजपा सरकार में कई स्वयंसेवक हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि संघ उसके दिन-प्रतिदिन के काम में हस्तक्षेप करता है.”संघ इस बात का भी खंडन करता है कि वो भाजपा की सरकारों को रिमोट कंट्रोल से चलाता है.आंबेकर कहते हैं कि संघ “भाजपा के कामकाज में न तो हस्तक्षेप करता है और न ही ऐसा करने की उसकी कोई इच्छा है. किसे कौन सा पद मिलेगा? कौन से स्थानों पर रैलियां होंगी? संघ का इन बातों से कोई वास्ता नहीं है.”12. भारत के झंडे को लेकर आरएसएस विवाद में क्यों रहा?इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, संघ के झंडे के साथ स्वयंसेवकआरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर भारत के तिरंगे झंडे के आलोचक थे.अपनी किताब “बंच ऑफ़ थॉट्स” में वो लिखते हैं, “ये झंडा कैसे अस्तित्व में आया? फ्रांसीसी क्रांति के दौरान फ्रांसीसियों ने अपने झंडे पर तीन रंग की पट्टियाँ लगाईं ताकि ‘समानता’, ‘बंधुत्व’ और ‘स्वतंत्रता’ के तीन विचार व्यक्त किए जा सकें. तीन रंग की पट्टियाँ हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी एक तरह का आकर्षण थीं इसलिए इसे कांग्रेस ने अपनाया.”गोलवलकर ने ये भी लिखा कि तिरंगा “हमारे राष्ट्रीय इतिहास और विरासत पर आधारित किसी राष्ट्रीय दृष्टि या सत्य से प्रेरित नहीं था.”राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भगवा झंडे को गुरु का दर्जा दिया गया है. मोहन भागवत कहते हैं कि इसकी वजह ये है कि भगवा झंडा अनादि काल से लेकर आज तक संघ की विरासत का प्रतीक है.आज संघ कहता है कि वो राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करता है लेकिन आज़ादी के पहले और बाद के कई दशकों तक तिरंगे के प्रति उसके रुख़ पर सवाल उठते रहे हैं.नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, “जब 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज की बात कही गई तो ये फ़ैसला लिया गया कि 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा और तिरंगा झंडा फहराया जाएगा. आरएसएस ने उस दिन भी तिरंगे की जगह भगवा झंडा फहराया था.”धीरेंद्र झा का भी कहना है कि डॉक्टर हेडगेवार ने 21 जनवरी 1930 को लिखी चिट्ठी में संघ की शाखाओं में तिरंगे को नहीं बल्कि भगवा झंडे को फहराने की ही बात कही थी.एक आलोचना ये भी है 26 जनवरी 1950 के बाद आरएसएस ने अगले पांच दशकों तक अपने मुख्यालय पर तिरंगा झंडा नहीं फहराया. संघ ने पहली बार 26 जनवरी 2002 को अपने मुख्यालय पर तिरंगा फहराया.इसके जवाब में आरएसएस के समर्थक और नेता कहते हैं कि संघ ने 2002 तक राष्ट्रीय ध्वज इसलिए नहीं फहराया क्योंकि 2002 तक निजी नागरिकों को राष्ट्रीय ध्वज फहराने की इजाज़त नहीं थी.लेकिन, इस तर्क के जवाब में कहा जाता है कि 2002 तक भी जो फ्लैग कोड के नियम लागू थे वो किसी भी भारतीय व्यक्ति या संस्था को गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती पर झंडा फहराने से नहीं रोकते थे.नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि 1950, 60 और 70 के दशकों में भी निजी कंपनियां तक 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन तिरंगा फहराती थीं. “फ्लैग कोड का मक़सद सिर्फ़ ये था कि राष्ट्रीय ध्वज के साथ खिलवाड़ न हो.”26 जनवरी 2001 को नागपुर में आरएसएस स्मृति भवन पर तीन युवाओं ने जबरन तिरंगा झंडा फहराया था. 14 अगस्त 2013 की प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की रिपोर्ट कहती है, “परिसर के प्रभारी सुनील काठले ने पहले उन्हें परिसर में घुसने से रोकने की कोशिश की और बाद में उन्हें तिरंगा फहराने से रोकने की कोशिश की.”इन तीनों लोगों के ख़िलाफ़ ज़बरन प्रवेश (ट्रेसपासिंग) का मामला दर्ज किया गया लेकिन सबूतों के अभाव में 2013 में नागपुर की एक अदालत ने उन्हें बरी कर दिया.ये भी पढ़ें13. भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुसलमानों और ईसाइयों के मुद्दे पर आरएसएस का नज़रिया क्या है?आरएसएस के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत अलग-अलग मौक़ों पर कह चुके हैं कि भारत के सभी लोग हिंदू हैं और जो कोई भी भारत को अपना घर मानता है वो हिंदू है चाहे उसका धर्म कुछ भी हो. साथ ही, भागवत ये भी कई बार कह चुके हैं कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है.आरएसएस के अल्पसंख्यक समुदायों, ख़ासकर मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति नज़रिए पर सवाल उठते रहे हैं.इस विषय पर संघ की सोच की झलक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर की किताब “बंच ऑफ़ थॉट्स” में मिलती है.गोलवलकर ने लिखा था, “हर कोई जानता है कि यहाँ (भारत में) केवल मुट्ठी भर मुसलमान ही दुश्मन और आक्रमणकारी के रूप में आए थे. इसी तरह यहां केवल कुछ विदेशी ईसाई मिशनरी ही आए. अब मुसलमानों और ईसाइयों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है.””वे मछलियों की तरह सिर्फ़ गुणन से नहीं बढे, उन्होंने स्थानीय आबादी का धर्मांतरण किया. हम अपने पूर्वजों का पता एक ही स्रोत से लगा सकते हैं, जहां से एक हिस्सा हिंदू धर्म से अलग होकर मुसलमान बन गया और दूसरा ईसाई बन गया. बाक़ी लोगों का धर्मांतरण नहीं हो सका और वे हिंदू ही बने रहे.”इसी किताब में गोलवलकर ने मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को “राष्ट्र का आंतरिक शत्रु” बताया था.साल 2018 में ही जब भागवत से गोलवलकर के उनकी किताब “बंच ऑफ़ थॉट्स” में मुसलमानों को शत्रु कहे जाने के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने कहा था कि “बातें जो बोली जाती हैं वह स्थिति विशेष, प्रसंग विशेष के संबंध में बोली जाती हैं, वह शाश्वत नहीं रहती हैं”.अब गोलवलकर के विचारों के संकलन के नए संस्करण में आंतरिक शत्रु वाला प्रसंग हटा दिया गया है.14. क्या सरकारी कर्मचारी आरएसएस में शामिल हो सकते हैं?इमेज स्रोत, GOVERNMENT OF INDIAइमेज कैप्शन, सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस से जुड़ने पर रोक लगाने वाला गृह मंत्रालय का 1966 का आदेश.साल 1966 में भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने एक आदेश जारी किया था, जिसमें ये याद दिलाया गया कि कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी राजनीतिक दल या किसी ऐसे संगठन का सदस्य नहीं हो सकता जो राजनीति में हिस्सा लेता हो.साथ ही, ये कहा गया कि सरकारी कर्मचारियों के किसी राजनीतिक आंदोलन या गतिविधि में भाग लेने, मदद के लिए चंदा देने या किसी अन्य तरीक़े से मदद करने पर रोक है.इसी आदेश में ये साफ़ किया गया था कि अगर कोई सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात-ए-इस्लामी का सदस्य है या उनसे जुड़ा हुआ है तो सिविल सर्विस आचरण नियमों के तहत अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी.इसी बात को साल 1970 और 1980 में जारी किए आदेशों में दोहराया गया था.इमेज स्रोत, GOVERNMENT OF INDIAइमेज कैप्शन, सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस से जुड़ने पर लगी रोक हटाने वाला 2024 का आदेशजुलाई 2024 में केंद्र सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ़ पर्सोनेल एंड ट्रेनिंग (डीओपीटी) ने एक सर्कुलर जारी करके कहा कि साल 1966, 1970 और 1980 में दिए गए निर्देशों की समीक्षा के बाद उन आदेशों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम हटाने का फ़ैसला किया गया है. आसान शब्दों में कहें तो आज की तारीख़ में किसी भी सरकारी कर्मचारी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने या उसके लिए काम करने पर अब कोई मनाही नहीं है.बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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