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आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का सबसे विवादास्पद और चर्चित अध्याय रहा है। वर्ष 1975 से 1977 तक का वह दौर जब संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपातकाल की घोषणा की गई, देश की राजनीति, मीडिया, न्यायपालिका और आम जनजीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ गया। इस ऐतिहासिक समय में भारत के राष्ट्रपति पद पर आसीन थे डॉ. फखरुद्दीन अली अहमद, जिनकी भूमिका आज भी विश्लेषण और आलोचना का विषय बनी हुई है।
फखरुद्दीन अली अहमद का जीवन परिचय
13 मई 1905 को दिल्ली में जन्मे डॉ. फखरुद्दीन अली अहमद एक शिक्षित, सुसंस्कृत और संवेदनशील नेता थे। उनके पिता कर्नल जलनूर अली अहमद असम के पहले एम.डी. डॉक्टर थे और उनकी माता रुकैया सुल्तान लोहारू रियासत से संबंध रखती थीं।
उन्होंने सेंट स्टीफन कॉलेज, दिल्ली से शिक्षा प्राप्त की और फिर इंग्लैंड के कैथरीन कॉलेज, कैम्ब्रिज तथा इनर टेम्पल से कानून की पढ़ाई की। वहाँ उनकी मुलाकात पंडित नेहरू से हुई और वहीं से उनके राजनीतिक जीवन की दिशा तय हुई।
स्वतंत्रता संग्राम और राजनीतिक जीवन
भारत लौटने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और असम में वित्त मंत्री के रूप में सेवा की। वे भारत छोड़ो आंदोलन में भी सक्रिय रूप से शामिल रहे और जेल गए। स्वतंत्रता के बाद वे कई बार केंद्रीय मंत्री बने और इंदिरा गांधी की सरकार में कृषि, खाद्य, कानून और उद्योग जैसे मंत्रालयों को संभाला।
उनकी छवि एक सुलझे हुए, शालीन और सजग राजनेता की थी। 1974 में उन्हें भारत का पाँचवां राष्ट्रपति नियुक्त किया गया। वे देश के दूसरे मुस्लिम राष्ट्रपति बने।
आपातकाल की घोषणा: इतिहास की कलम और राष्ट्रपति की हस्ताक्षर
25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विपक्ष के विरोध, न्यायपालिका के निर्णयों और देश में कथित “अराजकता” की स्थिति को देखते हुए राष्ट्रपति से आंतरिक आपातकाल लगाने की सिफारिश की। राष्ट्रपति के पास संविधान के तहत प्रधानमंत्री की सलाह मानने की बाध्यता होती है, और उन्होंने उस पर हस्ताक्षर कर दिए।
इस हस्ताक्षर के साथ ही भारत में 21 महीनों के लिए आपातकाल लागू हो गया। संविधानिक प्रावधानों के तहत यह निर्णय सही था, लेकिन राजनीतिक और नैतिक दृष्टिकोण से इस पर प्रश्नचिह्न लगे।
रबर स्टैम्प या संवैधानिक बाध्यता?
फखरुद्दीन अली अहमद पर आरोप लगे कि उन्होंने बिना विचार किए आपातकाल पर हस्ताक्षर किए। उन्हें “रबर स्टैम्प राष्ट्रपति” कहा गया। किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की सलाह मानना आवश्यक है।
इसके बावजूद आलोचकों का मानना है कि वे इंदिरा गांधी के अत्यधिक प्रभाव में थे और उन्होंने संवैधानिक विवेक का उपयोग नहीं किया। वहीं उनके समर्थकों का कहना है कि वे एक विनम्र, कानूनप्रिय और संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करने वाले राष्ट्रपति थे, जिन्होंने अपनी सीमाओं में रहते हुए कार्य किया।
आपातकाल का प्रभाव और राष्ट्रपति भवन का मौन
आपातकाल के दौरान देश में नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया, प्रेस की स्वतंत्रता खत्म कर दी गई, विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। इन घटनाओं पर राष्ट्रपति का कोई प्रत्यक्ष बयान नहीं आया, जो उन्हें जनता की नजरों में कमजोर बना गया।
राष्ट्रपति भवन, जो एक लोकतांत्रिक आवाज का केंद्र माना जाता था, वह मौन हो गया। यह मौन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की स्वभाविक शालीनता थी या राजनीतिक विवशता — यह बहस का विषय है, परंतु यह तय है कि वे व्यक्तिगत रूप से इन दमनकारी निर्णयों के पक्षधर नहीं थे।
एक मानवीय राष्ट्रपति: सत्ता से अधिक सेवा
डॉ. फखरुद्दीन अली अहमद का व्यक्तित्व सत्ता के लोभ से परे था। वे सादा जीवन जीते थे, शांतिप्रिय थे और कर्मचारियों से लेकर आम नागरिकों तक, सभी के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करते थे।
एक बार एक पत्रकार ने उनसे पूछा, “आप इतना कम बोलते हैं, क्या यह राष्ट्रपति पद के लिए ठीक है?” उन्होंने उत्तर दिया, “जब देश बोल रहा हो, तो राष्ट्रपति को सुनना चाहिए।” इस उत्तर से उनके दृष्टिकोण और विनम्रता का पता चलता है।
अचानक निधन और देश की स्तब्धता
11 फरवरी 1977 को फखरुद्दीन अली अहमद को दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हो गया। वे अपने कार्यकाल के दौरान निधन होने वाले दूसरे राष्ट्रपति बने। उनका अंतिम संस्कार 13 फरवरी को दिल्ली में राजकीय सम्मान के साथ किया गया।
उनकी मृत्यु के बाद बी. डी. जत्ती कार्यवाहक राष्ट्रपति बने, और बाद में नीलम संजीव रेड्डी छठे राष्ट्रपति नियुक्त हुए।
आपातकाल और उनकी विरासत
आपातकाल के दौर में राष्ट्रपति की भूमिका हमेशा एक विवादित विषय रही है। परंतु यदि हम इतिहास को केवल सत्ता के निर्णयों से नहीं, बल्कि व्यक्ति की नीयत और परिस्थितियों से देखें, तो फखरुद्दीन अली अहमद की छवि एक निष्कलंक, संवेदनशील और संविधाननिष्ठ राष्ट्रपति की बनती है।
उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत लाभ के लिए पद का दुरुपयोग नहीं किया। वे आज भी उन गिने-चुने राष्ट्रपतियों में से एक हैं, जिन्होंने निस्वार्थ भाव से देश की सेवा की।
महत्वपूर्ण लिंक
- The Emergency (India) – Wikipedia
- President of India – Official Website
- भारतीय संविधान और आपातकालीन प्रावधान
निष्कर्ष: आपातकाल और एक सच्चे सेवक का मूल्यांकन
इतिहास ने भले ही डॉ. फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल के एक हस्ताक्षरकर्ता के रूप में याद किया हो, लेकिन उनका जीवन केवल उस हस्ताक्षर तक सीमित नहीं है। वे एक ऐसे राष्ट्रपति थे जिनके दिल में देश बसता था, जिनकी कलम संवैधानिक मर्यादाओं से बंधी थी, और जिनका अंत भी सेवा करते हुए हुआ।
आपातकाल भले ही एक काला अध्याय था, लेकिन इस कालखंड में भी कुछ लोग ऐसे थे जिन्होंने अंधकार में भी मर्यादा, संयम और संवेदनशीलता की लौ जलाई — और डॉ. फखरुद्दीन अली अहमद उन्हीं में से एक थे।