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मोहम्मद रफ़ी के सालों खाली बैठने की वजह बताई सुरेश वाडकर ने: कहानी ज़िंदगी की



इमेज स्रोत, Kirti Rawat37 मिनट पहलेजाने-माने गायक सुरेश वाडकर को पहला ब्रेक रविंद्र जैन ने दिया था. सुरेश वाडकर ने कई फ़िल्मों में गाने गाए हैं, जिनसे उन्हें पहचान मिली.सुरेश वाडकर ने ‘मैं हूं प्रेम रोगी’, ‘मेरी किस्मत में तू’, ‘ऐ ज़िंदगी गले लगा ले’, ‘चप्पा चप्पा चरखा चले’, ‘सपने में मिलती है, ओ कुड़ी मेरी’, ‘रात के ढाई बजे’ जैसे मशहूर गानों में अपनी आवाज़ दी है.आज फ़िल्म इंडस्ट्री में सुरेश वाडकर को 49 साल हो रहे हैं. वो आज भी गाते हैं, लेकिन उनकी संगीतकारों से शिकायत है.संगीतकारों से उनका सवाल है, “या मुझे गाने गाना आता नहीं, इसलिए मेरी तरफ़ आप ध्यान नहीं दे रहे हो या आपके गाने को बहुत ज्यादा न्याय देगा, इसलिए आपने नज़रअंदाज किया.”बीबीसी हिंदी की ख़ास पेशकश ‘कहानी ज़िंदगी की’ में इस बार इरफ़ान ने गायक सुरेश वाडकर से बात की.कुश्ती करने वाले पिता को बेटे में गायक दिखाइमेज कैप्शन, सुरेश वाडकर को पहला ब्रेक रविंद्र जैन ने दिया थासुरेश वाडकर के पिता कॉटन मिल में नौकरी करते थे, लेकिन इसके साथ-साथ वो पहलवानी भी करते थे.मुंबई में जन्मे सुरेश वाडकर बताते हैं कि उनके पिता मिट्टी वाली कुश्ती करते थे. इसलिए सुरेश वाडकर को भी अखाड़े जाना पड़ता था ताकि उनकी सेहत ठीक रहे.लेकिन उनके पिता संगीत के भी शौकीन थे. इसका असर सुरेश वाडकर पर भी पड़ा.सुरेश वाडकर कहते हैं, “मेरे पिता संगीत के बड़े शौकीन थे, वे भजन वगैरह गाते थे. इसलिए बचपन से ही मेरे ऊपर संगीत का असर रहा. एक दिन अचानक उन्होंने मुझे गाते हुए सुना. उस वक़्त मेरी उम्र लगभग चार साल थी, मुझे सुनकर उनको लगा कि इसको गाना सिखाना चाहिए.”इस तरह, संगीत के माहौल में बचपन गुजार रहे सुरेश वाडकर की चार साल की उम्र से गाने की ट्रेनिंग शुरू हो गई.एक प्रतियोगिता से मिला पहला ब्रेकइमेज कैप्शन, सुरेश वाडकर का गाया ‘सोना करे झिलमिल-झिलमिल…वृष्टि पड़े टापुर टुपुर’ गाना बहुत पॉपुलर हुआ थासुरेश वाडकर ने पहला प्लेबैक ‘पहेली’ फ़िल्म में किया. ये पहला ब्रेक उन्हें रविंद्र जैन ने दिया था.ये फ़िल्म उन्हें कैसे मिली, इसके बारे में बताते हुए वो एक प्रतियोगिता का ज़िक्र करते हैं, जिसके जजों में रविंद्र जैन, जयदेव, हृदयनाथ मंगेशकर शामिल थे.सुरेश वाडकर बताते हैं, “1976 में एक प्रतियोगिता हुई थी, सुर श्रृंगार संसद एक संस्था थी, उसमें मैंने भी पार्टिसिपेट किया था. मेरे अलावा उसमें मेरे बहुत अज़ीज दोस्त हरिहरण और रानी वर्मा को भी अवॉर्ड मिले थे. मुझे मदन मोहन अवॉर्ड, हरि को एचडी बर्मन अवॉर्ड और रानी को वसंत देसाई अवॉर्ड.”सुरेश वाडकर बताते हैं कि उस प्रतियोगिता में रविंद्र जैन जब स्टेज़ पर अवॉर्ड देने आए थे, तब उन्होंने अनाउंस किया था कि जो विनर होगा, उसे वो पहला ब्रेक देंगे.सुरेश वाडकर कहते हैं, “फिर उन्होंने (रविंद्र जैन ने) एक दिन मुझे घर पर बुलाया, मुझे सुना. राशिद प्रोडक्शन की एक फ़िल्म बन रही थी, जिसमें मास्टर सत्यजीत पहली बार फुल फ्लेज़्ड हीरो के तौर पर आने वाले थे. राजकुमार बड़जात्या को मेरी आवाज़ सुनाई, उसके लिए ख़ासतौर पर एक ग़ज़ल रिकॉर्ड की. राजकुमार बड़जात्या को मेरी आवाज़ पसंद आई. इस तरह मेरी पहली फ़िल्म ‘पहेली’ है.”‘पहेली’ में रविंद्र जैन के साथ रिकॉर्ड किया गया उनका पहला गाना, ‘सोना करे झिलमिल-झिलमिल…वृष्टि पड़े टापुर टुपुर’ था, जो बहुत पॉपुलर हुआ था.जब सुरेश वाडकर को लोग जानने लग गएइमेज स्रोत, BBC/Getty Imagesसुरेश वाडकर ने फ़िल्म ‘गमन’ में ‘सीने में जलन’ गाना गया था, उनके मुताबिक़ इस गाने से पूरा नॉर्थ उन्हें जानने लग गया था.’सीने में जलन’ गाने का मौका उन्हें जयदेव ने दिया था. सुरेश वाडकर बताते हैं, “एक दिन सुबह-सुबह जयदेव जी का फ़ोन आया, उन्होंने मुझे मिलने के लिए बुलाया. उन्होंने बताया कि एक बहुत सुंदर ग़ज़ल बनी है, फ़िल्म बन रही है ‘गमन’ तो मेरे लिए तुमको गाना है. उन्होंने गाना सिखाया और मैंने गा दिया और उसका पहला टेक ही ओके हो गया.”सुरेश वाडकर कहते हैं कि जब उन्होंने इस गाने का अपना पहला टेक सुना, तो वो दुखी हो गए थे. उन्होंने जयदेव से एक और टेक लेने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने ये कहकर इनकार कर दिया था कि उन्हें जैसे गाना चाहिए, वैसे रिकॉर्ड हो गया है.सुरेश वाडकर बताते हैं, “मैं घर आकर रोने लगा था. लेकिन उस वक़्त मुझे मालूम नहीं था कि उस गाने का क्या रंग बनेगा बाद में. ये गाना बहुत पॉपुलर हुआ और लोग जानने लग गए कि सुरेश वाडकर नाम का कोई नया लड़का आया है.”राज कपूर की ‘प्रेम रोग’ में गाने का मौक़ासुरेश वाडकर के लिए फ़िल्मों में एक और अहम मोड़ तब आया, जब उन्हें राज कपूर की ‘प्रेम रोग’ में गाने का मौक़ा मिला.ये फ़िल्म उन्हें कैसे मिली, इसके बारे में वो बताते हैं, “मैं कहीं रिकॉर्डिंग कर रहा था, तब वहां फ़ोन आया कि लक्ष्मीकांत जी ने बुलाया है. इसके पहले मुझे ये नहीं मालूम था कि लक्ष्मीकांत जी ने उनको (राज कपूर को) मेरा और लता जी का गाना ‘मेघा रे मेघा रे’ सुनाया था और राज कपूर नई आवाज़ ढूंढ रहे थे. वो बहुत खुश हुए थे कि इस लड़के को बुलाओ. प्रेम रोग के लिए ये ही गाएगा.”सुरेश वाडकर बताते हैं कि जब ‘मैं हूं प्रेम रोगी’ गाना रिकॉर्ड हुआ, तो राज कपूर बहुत खुश हो गए थे और उन्होंने 10 हज़ार रुपये दिए थे.सुरेश वाडकर बताते हैं कि उन दिनों एक गाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा 1500-दो हज़ार रुपये मिलते थे. लेकिन जब राज कपूर के दिए लिफ़ाफ़े से 10 हज़ार रुपये निकले, तो उन्हें लगा कि किसी और का लिफ़ाफ़ा गलती से उनके पास आ गया है.वो कहते हैं, “मैं राज कपूर के पास गया और कहा कि शायद आपने गलती से ये लिफ़फ़ा दे दिया है, तो उन्होंने पूछा, ‘क्यों बेटा, कम है क्या? मैंने कहा कि ये तो बहुत ज़्यादा है. उन्होंने कहा, ‘मैंने प्यार से दिया है पैसा’.”म्यूज़िक इंडस्ट्री की ख़ामियां और गलाकाट प्रतियोगिताइमेज स्रोत, SUJIT JAISWAL/AFP via Getty Imagesइमेज कैप्शन, सुरेश वाडकर का मानना है कि गाना ऐसा होना चाहिए जिसकी वैल्यू आने वाले ज़मानों तक बरकरार रहेम्यूज़िक इंडस्ट्री में सामने आने वाले संघर्ष और गलाकाट प्रतियोगिता के सवाल पर सुरेश वाडकर कहते हैं, “यहां मोहम्मद रफ़ी जैसे सिंगर जिन्होंने पूरी इंडस्ट्री में अपना लोहा मनवाया, उनको आठ या नौ साल घर पर बैठाया गया.”वो कहते हैं, “हमारे टाइम पर भी ऐसा हुआ, किसी एक को आप पॉपुलर सिंगर बोलते हैं या लकी सिंगर बोलते हैं. जब 100 में 98 गाने वो गाएगा, तो उसमें से छह से आठ गाने चलेंगे ही. ये जो निगेटिविटी है, गलाकाट प्रतियोगिता है, ये हमारे अपने लोग करते हैं.”इसी वजह से सुरेश वाडकर फ़िल्म इंडस्ट्री को ‘शापित’ कहते हैं. वो कहते हैं, “हमारी इंड्रस्ट्री शापित है, ये पनपती नहीं. अगर सालाना दो हज़ार फ़िल्में बनती हैं, उसमें से पांच चलती है, तो आपने क्या तीर मार लिया? हमारी इंडस्ट्री इसलिए शापित है क्योंकि आप लोग दुआएं, आशीर्वाद बहुत कम पाते हैं. जिसके कंधे पर चढ़कर आप आगे बढ़ते हो, उसी को भूल जाते हो.”सुरेश वाडकर तब और अब के म्यूज़िक डायरेक्टरों में भी अंतर होने की बात करते हैं. वो कहते हैं, “अब वो म्यूज़िक डायरेक्टर नहीं रहे. आजकल सिचुएशन पर कोई गाना नहीं होता. अचानक से उठकर स्विटज़रलैंड चला जाता है. पीछे 150 लड़के-लड़कियां पीछे डांस कर रहे होते हैं, आगे हीरो-हीरोइन डांस कर रहे होते हैं.”सुरेश वाडकर कहते हैं कि अब स्टोरी के साथ लगकर गाने नहीं बनते, जबकि पहले ऐसे होता था. इसी वजह से सैड सॉन्ग भी होता था और जॉनी वॉकर, महमूद के ऊपर कॉमेडी गाना भी होता था.आज के टैलेंट को अच्छे काम की ज़रूरतसुरेश वाडकर कहते हैं कि आज टैलेंटेड सिंगर्स आ रहे हैं, टैलेंटेड म्यूज़िक डायरेक्टर भी हैं, लेकिन उनका नज़रिया बदल गया है.वो कहते हैं, “अगर आप शॉर्ट टाइम के लिए गाना बनाना चाहते हैं, तो वो शॉर्ट टाइम के लिए ही हो सकता है. आज की जनरेशन आप देखेंगे, ये जो रियल्टी शो में है, अपने आपको साबित करने के लिए वही 60 और 70 के दशक के गाने गाती है. आज का गाना फ़िल्म तक आता है और फिर थोड़े टाइम में कपूर की तरह उड़ जाता है, ऐसा नहीं होना चाहिए.”सुरेश वाडकर का मानना है कि गाने की वैल्यू आने वाले ज़मानों तक बरकरार रहनी चाहिए.वो कहते हैं कि सिंगर्स तो बहुत अच्छे आए हैं, लेकिन उन्हें उस तरह का काम नहीं मिल रहा है, जो उन्हें लंबी दौड़ का घोड़ा बनाए.सुरेश वाडकर के मुताबिक़ उनकी मदद म्यूज़िक डायरेक्टर और मेकर्स ही कर सकते हैं. वो कहते हैं, “मेकर्स का धर्म सिर्फ़ हीरो-हेरोइन बनाने का नहीं होता है, उनका धर्म ये भी है कि अच्छे राइटर्स, सिंगर्स उनकी फ़िल्मों से जन्म लें.”बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित



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