Table of Contents
लेखक का अनुभव आधारित नज़रिया
– एक ऐसा खतरा, जो दिखता नहीं, लेकिन असर करता है
मेरी बात सुनिए…
मैं कोई डॉक्टर नहीं हूँ। मैं भी आप ही की तरह एक आम इंसान हूँ जो दिन भर लैपटॉप पर काम करता है और फिर रात को मोबाइल पर स्क्रॉल करता रहता है।
कभी-कभी आंखों में जलन होती थी, थोड़ी धुंधली भी लगती थी। शुरू में सोचा, “थकावट होगी”, लेकिन जब ये रोज़-रोज़ होने लगा तो समझ आया कि कुछ गड़बड़ है।
मैंने गूगल किया, डॉक्टर से मिला, और एक नई चीज़ के बारे में पता चला – आंखों का माइक्रोबायोम। सुनने में अजीब लगे, लेकिन यह हमारी आंखों के अंदर बसे सूक्ष्म जीवों की एक दुनिया है, जो हमारी आंखों की रक्षा करती है। और उसी दुनिया पर खतरा है — ब्लू लाइट से।
क्या है आंखों का माइक्रोबायोम?
मेरे लिए ये बिल्कुल नई जानकारी थी।
जैसे पेट में अच्छे बैक्टीरिया होते हैं, वैसे ही आंखों में भी कुछ सूक्ष्म जीव होते हैं जो हमारी आंखों को इंफेक्शन से बचाते हैं। ये इतनी बारीक दुनिया है कि हम इन्हें देख भी नहीं सकते, लेकिन ये हमारी आंखों की सेहत में बड़ा रोल निभाते हैं।
अब समस्या कहाँ है?
स्मार्टफोन, लैपटॉप, टैबलेट – इन सबसे जो नीली रोशनी (Blue Light) निकलती है, वो सिर्फ हमारी नींद या सिरदर्द को प्रभावित नहीं कर रही।
अब ऐसा माना जा रहा है कि यह हमारी आंखों की सतह पर बसे इन सूक्ष्म जीवों को भी नुकसान पहुँचा रही है।
मैंने एक लेख में पढ़ा था कि जो लोग दिन में 5-6 घंटे से ज्यादा स्क्रीन देखते हैं, उनकी आंखों की नमी (Tear Film) कम होने लगती है। और यही नमी इन माइक्रोबायोम के लिए जरूरी होती है। जब नमी कम होती है, तो ये जीव मरने लगते हैं और फिर हमारी आंखें बार-बार इंफेक्शन, जलन और एलर्जी का शिकार बनती हैं।
मेरी एक मुलाक़ात — सुधीर
डॉक्टर से मिलने के दौरान मेरी मुलाक़ात सुधीर नाम के एक सज्जन से हुई। वो एक आईटी फर्म में काम करते हैं, और उन्हें हर समय स्क्रीन पर रहना होता है।
उनकी आंखें बहुत सूखी हो चुकी थीं। डॉक्टर ने बताया कि उनका माइक्रोबायोम डिस्टर्ब हो गया है। उन्हें अब आर्टिफिशियल टीयर्स और ब्लू लाइट फिल्टर चश्मा इस्तेमाल करना पड़ रहा है।
सुधीर बोले — “भाई, हमें तो लगा था आंखें थक रही हैं, पर असल में वो अंदर से बीमार हो रही हैं।”
थोड़ी रिसर्च मैंने भी की…
मैंने कुछ रिसर्च आर्टिकल पढ़े। अभी तो ये शुरुआती स्टेज में हैं, लेकिन वैज्ञानिक मानते हैं कि ब्लू लाइट से:
- आंखों की नमी घटती है
- सूक्ष्मजीव मरते हैं
- आंखें सूज सकती हैं या लाल हो सकती हैं
- और लंबे समय में रेटिना पर भी असर हो सकता है
क्या ये किसी एलर्जी जैसा है?
एक टर्म मुझे मिला — “डिजिटल एलर्जी”। ये कोई मेडिकल टर्म नहीं है लेकिन बात समझने लायक है।
मतलब ये कि जब आंखें ज्यादा स्क्रीन देखती हैं, तो बार-बार इरिटेशन, खुजली या जलन होती है। ये शायद इसीलिए होता है कि आंखों की सतह पर मौजूद जीवाणु बैलेंस में नहीं रह पाते।

बच्चों की आंखें सबसे ज्यादा नाज़ुक
मुझे सबसे ज्यादा चिंता बच्चों की होती है। आजकल बच्चे 2-3 साल की उम्र से ही मोबाइल पर वीडियो देखने लगते हैं।
उनकी आंखों का माइक्रोबायोम तो बहुत ही नाजुक होता है। अगर हम अभी से ध्यान नहीं देंगे तो कल को ये आंखों की बीमारियों का कारण बन सकता है।
मैंने क्या करना शुरू किया?
- हर 20 मिनट पर मोबाइल से आंखें हटाकर 20 फीट दूर 20 सेकंड तक देखता हूँ
- फोन में “Night Mode” ऑन कर दिया है
- स्क्रीन की ब्राइटनेस कम कर दी
- अब सोने से कम से कम 1 घंटे पहले फोन हाथ नहीं लगाता
- दही और प्रोबायोटिक चीजें खाने में शामिल कीं
- और हां, थोड़ा बाहर की प्राकृतिक रोशनी में भी बैठता हूँ, ताकि आंखों को आराम मिले
कंपनियां क्या कर रही हैं?
कुछ कंपनियों ने “Eye Shield”, “Reading Mode” जैसी सुविधाएं दी हैं, लेकिन ये सिर्फ एक आंशिक समाधान है।
आने वाले समय में उम्मीद है कि स्क्रीन ऐसी बनें जो हमारी आंखों के बैक्टीरिया फ्रेंडली हों।
आखिरी बात — आंखें सिर्फ देखने का नहीं, समझने का जरिया हैं
हम जब किसी को आंखों में देखकर मुस्कुराते हैं, तो वो सिर्फ विज़न नहीं होता — वो एक फीलिंग होती है।
और उसी आंख में एक नन्हीं-सी दुनिया बसी है, जो हमारी रक्षा करती है। अगर हमने उसका ख्याल नहीं रखा, तो हम सिर्फ चश्मे नहीं पहनेंगे — हमें शायद अपनी आंखों को बचाने के लिए दवाइयों पर निर्भर होना पड़ेगा।
आंखों के लिए जागरूकता फैलाना ज़रूरी क्यों है?
आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहां स्क्रीन हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी है। चाहे पढ़ाई हो, काम हो या मनोरंजन — हर जगह मोबाइल और लैपटॉप हमारी आंखों के सामने हैं।
लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि हम आंखों को सिर्फ चश्मे से जोड़कर देख रहे हैं, उनके अंदर की दुनिया को नहीं समझ रहे।
आप सोचिए, जो सूक्ष्मजीव हमारी आंखों की सुरक्षा में लगे हैं, अगर वही धीरे-धीरे खत्म हो जाएं, तो हम कितने असुरक्षित हो जाएंगे?
अगर आंखों के इन नन्हें सैनिकों को बचाना है, तो हमें अपने व्यवहार को बदलना होगा।
अब वक्त आ गया है कि स्कूलों में बच्चों को आंखों की डिजिटल देखभाल की शिक्षा दी जाए। ऑफिसों में कर्मचारियों को स्क्रीन सेफ्टी ट्रेनिंग दी जाए। और हर इंसान अपने फोन के साथ-साथ अपनी आंखों के प्रति भी ईमानदार हो।
अगर हम अपने आंखों के स्वास्थ्य को जीवन की प्राथमिकता बना लें, तो आने वाले समय में कई बड़ी बीमारियों से बच सकते हैं।
आंखें अनमोल हैं – इनका सम्मान कीजिए, इनकी रक्षा कीजिए।
मेरा उद्देश्य
मैं ये लेख किसी को डराने के लिए नहीं लिख रहा। मैं खुद भी इस दौर से गुज़र रहा हूँ और चाहता हूँ कि आप भी अपनी आंखों के लिए अभी से थोड़ा ध्यान रखें।
आंखें अनमोल हैं — ये सिर्फ रोशनी नहीं देतीं, ये हमें दुनिया से जोड़ती हैं।
अगर आपको ये लेख उपयोगी लगा हो, तो किसी दोस्त या माता-पिता से ज़रूर साझा करें। शायद किसी की आंखों की दुनिया बच जाए।