इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, बेदख़ली अभियान के तहत अपने घर के तोड़े जाने के बाद रो रही एक महिला….मेंAuthor, इल्मा हसनपदनाम, बीबीसी संवाददाता, असम के गोलाघाट से31 अगस्त 2025अपडेटेड 9 घंटे पहलेअसम में कथित सरकारी ज़मीन से लोगों को बेदख़ल करने का अभियान पिछले कुछ समय से लगातार सुर्ख़ियों में है. मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने जून महीने से इस अभियान को तेज़ किया है.इस अभियान के केंद्र में ऊपरी असम का गोलाघाट ज़िला है. सरकारी दावे के मुताबिक़, इस ज़िले में क़रीब 1500 परिवारों को बेदख़ल किया जा चुका है. असम सरकार इस अभियान की दो वजहें बताती है, पहला- ‘अवैध क़ब्ज़ा करने वालों’ को हटाना, दूसरा- पूर्वी असम में आबादी में हो रहे बदलाव.वहीं दूसरी ओर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि असम की भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार बांग्ला भाषी मुस्लिम परिवारों को निशाना बना रही है. बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करेंहालांकि, राज्य सरकार का कहना है कि वह असम की नहीं बल्कि बांग्लादेश से आकर बसे मुसलमानों की बढ़ती संख्या को रोकने की कोशिश कर रही है.इमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, गोलाघाट में बेदख़ली अभियान के तहत गिराया जा रहा एक घरजून से ही राज्य सरकार कई इलाक़ों में परिवारों को बेदख़ली का नोटिस दे रही है. इन परिवारों को घर ख़ाली करने के लिए सात दिन का समय दिया जाता है. इसके बाद प्रशासन बुलडोज़र से उनके घरों को गिरा देता है. राज्य सरकार का यह भी दावा है कि साल 2021 से अब तक पूरे राज्य में इस तरह से 1.2 लाख बीघा से भी ज़्यादा ज़मीन वापस ली गई है.हालांकि, यह दावा कितना सटीक है और इस अभियान का असर कितने परिवारों पर पड़ा है, इस बारे में बीबीसी हिन्दी को सटीक जानकारी नहीं मिल सकी है.वहीं जिन परिवारों को दशकों पुराने घरों से बेदख़ल किया जा रहा है, उनका कहना है कि उनके सामने एक अनिश्चित भविष्य खड़ा है.Play video, “असम में ‘बेदखली अभियान’ के तहत कई घरों पर चले बुलडोज़र चले- ग्राउंड रिपोर्ट”, अवधि 10,4210:42वीडियो कैप्शन, असम में ‘बेदखली अभियान’ के तहत कई घरों पर चले बुलडोज़र चले- ग्राउंड रिपोर्टबेघर परिवारों को तलाशना पड़ रहा है नया ठिकानाइमेज स्रोत, Rubaiyat Biswasइमेज कैप्शन, अमीना ख़ातून कहती हैं कि उनके परिवार को नोटिस मिलने के बाद उन्हें अपने रिश्तेदार के घर में शरण लेनी पड़ी18 साल की अमीना ख़ातून उरियमघाट के रेंगमा फ़ॉरेस्ट रिज़र्व में पली-बढ़ी हैं. 21 जून को उनके परिवार को बेदख़ली का नोटिस मिला. बुलडोज़र आने से एक दिन पहले उनके परिवार को अपना घर छोड़कर लगभग 200 किलोमीटर दूर अपने रिश्तेदारों के घर जाना पड़ा.वो सवाल करती हैं, “हमारी सिर्फ़ यही ग़लती है कि हम मियां मुस्लिम हैं और क्या? मियां इंसान नहीं होते क्या?”बंगाली भाषा बोलने वाले मुसलमानों को असम में आम तौर पर ‘मियां मुस्लिम’ कहा जाता है, जिसे अपमानजनक भी माना जाता है.हिमंत बिस्वा सरमा और बीजेपी की सरकार ने बार-बार कहा है कि उसका अभियान असम के स्वदेशी मुस्लिम नहीं, बल्कि बांग्लादेश से आए मुस्लिमों की बढ़ती संख्या को रोकने की कोशिश है.लेकिन जनगणना के आंकड़े नहीं होने से इस बात का कोई सबूत नहीं है कि असम में बांग्लादेश से आए मुस्लिमों की संख्या बढ़ी है.अमीना बीबीसी से कहती हैं, “मुझे बहुत तकलीफ़ होती है. मेरे पिता वहीं बड़े हुए हैं. मैं भी वहीं पैदा हुई हूँ. मैंने सोचा था कि यह ज़मीन मेरे पिता की है.” वो कहती हैं, “हमें बाद में पता चला कि यह सरकारी ज़मीन है. मेरे पिता वहाँ खेती करते थे. जब भी मैं अपने पिता से पैसे माँगती थी तो पैसे मिलते थे. अब मैं नहीं माँगती. उनके पास पैसे नहीं हैं. कैसे मांगूं?”अमीना जिस गाँव में आई हैं, वहीं 20 साल के करीमुल हक़ भी जुलाई में अपने माता-पिता के साथ उरियमघाट से आए हैं.करीमुल का परिवार अब बचे हुए पैसों से अपने लिए एक नया घर बना रहा है. इस घर को आप एक कमरा भी कह सकते हैं. दरअसल, जिन परिवारों पर बेदख़ली अभियान का असर पड़ा है, उनकी आर्थिक स्थिति पूरी तरह बदल गई है.करीमुल कहते हैं, “वहाँ पापा खेती-बाड़ी करते थे तो पैसे आ जाते थे. अब यहाँ आकर पापा कुछ नहीं कर पा रहे. वहाँ अच्छे से खाना-पीना होता था. यहाँ आकर वो नहीं हो पा रहा, इतने सारे लोग एकसाथ हैं. बहुत सारे खर्चे हो रहे हैं. हम लोग 10-12 दिन खा पाएँगे शायद.”करीमुल के पिता हशमत अली कहते हैं, “उरियमघाट में हम खेती करते थे. हमारे पास बगीचे थे. मैं 36 साल से वहाँ रह रहा था. मेरा मन उस जगह के लिए रोता रहता है. मैं मरने की कगार पर हूँ.”करीमुल की माँ ज़ुबैदा ख़ातून कहती हैं कि सरकार को सोचना चाहिए कि जिन लोगों के पास सारे ज़रूरी दस्तावेज़ हैं, उन्हें इस तरह बेघर क्यों किया गया.वो कहती हैं, “हमारा वोटर कार्ड उसी जगह का है. आधार कार्ड का पता भी उसी जगह का है. नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स (एनआरसी) भी उसी जगह का है. सब कुछ हमारा उसी जगह से है. अगर सरकार हमें पसंद नहीं करती थी तो सरकार को हमें घर नहीं देना चाहिए था. आधार कार्ड और राशन कार्ड भी नहीं देना चाहिए था.”अमीना दावा करती हैं, “उसी जगह पर बोडो भी हैं, आदिवासी भी हैं, नेपाली भी हैं और असमिया भी हैं. सब समुदाय के लोग हैं, सिर्फ़ मुसलमान नहीं रहते थे. लेकिन सिर्फ़ चुन-चुनकर मुसलमानों को निकाला गया.”बीबीसी की टीम ने प्रभावित इलाक़ों में जाकर बेदख़ली अभियान से प्रभावित लोगों और दूसरे समुदायों की स्थिति की पड़ताल करने की कोशिश की, लेकिन गोलाघाट ज़िला प्रशासन ने प्रभावित इलाकों (जो संरक्षित वन्य क्षेत्र भी हैं) में जाने की अनुमति नहीं दी.18 अगस्त को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा था कि बीबीसी की टीम ने उरियमघाट के बेदख़ली स्थलों पर जाने की कोशिश की थी.सरमा ने कहा था कि उन्होंने जंगल क्षेत्र में बीबीसी की टीम को जाने की अनुमति नहीं दी. उन्होंने दावा किया कि “इस बार हम बहादुरी से काम कर रहे हैं और हम किसी भी व्यक्ति या समूह को इन मुद्दों का फ़ायदा उठाने की अनुमति नहीं देंगे.”इसलिए बीबीसी अमीना के इस दावे की पुष्टि नहीं कर सकता है कि केवल एक समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है.युवाओं के अधूरे सपनेइमेज स्रोत, Getty Imagesइमेज कैप्शन, ढहा दिए गए घर के बाहर बैठी एक महिलाअमीना और करीमुल, बेदख़ली अभियान से पहले गोलाघाट ज़िले के कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे. अमीना कहती हैं कि डॉक्टर बनना चाहती थीं और करीमुल टीचर बनना चाहते थे. लेकिन विस्थापन की वजह से उनकी पढ़ाई छूट गई है.अमीना कहती हैं, “मेरा सपना था कि मैं डॉक्टर बनूँ. लेकिन अब सोचती हूँ कि कैसे बनूँ. खाने के लिए भी पैसे नहीं हैं, तो मेरा कॉलेज में कैसे दाख़िला होगा? मेरे पिता यही सोचते थे कि लड़की को पढ़ाना है, वो बड़ी हो रही है, कुछ करेगी.”वहीं करीमुल असमिया भाषा पढ़ रहे थे. उनका कॉलेज लगभग ख़त्म होने वाला था, लेकिन बेदख़ली के कारण उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी. करीमुल का कहना है कि बेदख़ली की वजह से उनके हॉस्टल, किताबें और खाने-पीने का ख़र्च उठाना अब माता-पिता के लिए संभव नहीं रहा, इसलिए उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी.करीमुल ने कहा, “उधर जाकर पढ़ाई भी करूँगा तो हॉस्टल में रहने के लिए पैसे चाहिए. मम्मी ने एक ही बात बोली कि बेटा उस समय हमारी स्थिति बहुत अच्छी थी. अब बहुत ख़राब है.” “माँ-बाप बच्चों को कभी नहीं कहेंगे कि तुम पढ़ाई मत करो. माँ-बाप चाहते हैं कि बच्चे अच्छा करें. वही मेरा सपना था कि पढ़ाई करके मम्मी-पापा के लिए कुछ करूँ.”सरकार के रवैये पर सवालअसम में बेदख़ली अभियान से प्रभावित परिवारों की ओर से गौहाटी हाई कोर्ट में पैरवी करने वाले मानवाधिकार वकील एआर भुइयां राज्य सरकार के रवैए पर सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं, “ये लोग 50 से लेकर 70 साल से वहाँ रहते आए हैं. तब तो सरकार सो रही थी, अब क्यों जाग रही है?”उनका कहना है कि यह साबित करने का कोई ठोस तरीक़ा नहीं है कि कौन कब बांग्लादेश से आया. एआर भुइयां कहते हैं, “कोई रिकॉर्ड ही नहीं है. सब कुछ अंदाज़े से चलता है. कपड़े, रंग या धर्म को देखकर जनसंख्या नियंत्रण के लिए ज़बरन बेदख़ल करना कोई तरीक़ा नहीं है. हम क़ानून के राज में जीते हैं, भावनाओं के नहीं.”वहीं असम सरकार का तर्क है कि बाहरी लोगों को बसाकर असमिया हिंदुओं की आबादी कम की जा रही है.बीजेपी की राज्य प्रवक्ता रत्ना सिंह ने बीबीसी से कहा, “असम के मुसलमान कभी किसी जगह पर क़ब्ज़ा नहीं करते. लेकिन ये जो बांग्लादेश मूल के लोग आए हैं, इन्होंने क़ब्ज़ा किया, भूमि का अधिग्रहण किया.”वो कहते हैं, “ग्रेटर मियांलैंड का सपना इन लोगों ने बांग्लादेश के साथ मिलकर देखा है. यह सोची-समझी मूवमेंट और माइग्रेशन है ताकि जनसंख्या का संतुलन बिगड़े और एक कॉन्स्टिट्यूएंसी का वोट बैंक बढ़ाया जाए.”हालांकि, राज्य सरकार की ओर से अब तक बांग्लादेशी मूल के लोगों के राज्य में प्रवेश को लेकर किसी तरह की आधिकारिक संख्या जारी नहीं की गई है. लेकिन इस मुद्दे की वजह से स्वदेशी असमिया और लंबे समय से आए बांग्ला भाषा बोलने वाले प्रवासियों को लेकर तनाव लगातार बढ़ा है.क़ानून क्या कहता है?इमेज स्रोत, Rubaiyat Biswasइमेज कैप्शन, ज़रूरी दस्तावेज़ होने के बाद भी गोलाघाट में कई परिवारों के भविष्य को लेकर आशंका बनी हुई हैअसम में बेदख़ली अभियान असम फ़ॉरेस्ट रेगुलेशन, 1891 और क़ानून में 1995 के संशोधन के तहत चलाए जा रहे हैं. यह क़ानून सरकार को जंगल और सरकारी ज़मीन वापस लेने का अधिकार देता है. असम लैंड रिकॉर्ड्स मैनुअल का रूल 18(2) कहता है कि बेदख़ली के लिए नोटिस और सुनवाई ज़रूरी है.यह क़ानून साल 2005 से पहले बसने वाले उन लोगों को ज़मीन का हक़ देता है, जिनके पास ज़मीन का वैध पट्टा है.इसी अगस्त महीने में गौहाटी हाई कोर्ट ने जंगल में बेदख़ली अभियान को सही ठहराया और लोगों को सात दिन में ज़मीन से निकलने का आदेश दिया था.लेकिन इससे संबंधित एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त को गोलाघाट ज़िले में ‘स्टेटस को’ यानी यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया है.राज्य सरकार का दावा है कि यह अभियान अवैध अप्रवासियों (अक्सर बांग्लादेशी) से असली लोगों के संसाधन बचाने के लिए है. उनका कहना है कि ये अभियान क़ानूनी तरीक़े से चलते हैं और बिना किसी धार्मिक भेदभाव के ज़मीन पब्लिक यूज़ के लिए वापस ली जाती है. आदिवासी समुदाय को नहीं निकाला जाता क्योंकि उन्हें फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट, 2006 के तहत सुरक्षा मिली हुई है.अगले साल होने हैं विधानसभा चुनावइमेज स्रोत, Rubaiyat Biswasइमेज कैप्शन, आरटीआई एक्टिविस्ट आकाश दाओ का आरोप है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की वजह से यह अभियान चल रहा हैअसम में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. कई विशेषज्ञ मानते हैं कि राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह अभियान चलाया जा रहा है.गोलाघाट ज़िले के मूल निवासी और आरटीआई एक्टिविस्ट आकाश दाओ ने बीबीसी को बताया, “इधर सिर्फ अल्पसंख्यक लोग ही नहीं हैं, एसटी, एससी, ओबीसी और जनरल लोग भी हैं. पर सिर्फ़ माइनॉरिटी लोगों को ही टारगेट किया जा रहा है. यह केवल 2026 का जो इलेक्शन है, उसकी वजह से अभी बीजेपी यह कर रही है.”इस मुद्दे पर असम विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष देबब्रत सैकिया ने बीबीसी से कहा, “बीजेपी ने राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर भारत के नागरिकों से दस साल पहले जो वादे किए थे, अब वे उसका क्रेडिट नहीं ले सकते (क्योंकि वो वादा पूरा नहीं हुआ). अब उन्हें सिर्फ़ सांप्रदायिक और नफ़रत फैलाने वाले मुद्दे चाहिए ताकि लोगों का ध्यान खींचा जा सके.”वो कहते हैं, “उनमें एक तरह का डर है. इसी वजह से असम में बेदख़ली हो रही है. हमारी मांग है कि उनकी नागरिकता की जांच की जाए. अगर वे विदेशी हैं तो उन्हें देश से बाहर भेजा जाए. लेकिन सरकार सिर्फ़ आंकड़े बताती है.””दुर्भाग्य से इसका असर केवल अल्पसंख्यकों और कुछ जनजातीय समुदायों पर पड़ता है. उन्होंने न तो किसी को डिटेंशन कैंप भेजा है और न ही क़ानूनी प्रक्रिया का पालन हुआ है. कई लोग भूमिहीन हैं जिन्हें दरअसल वैकल्पिक ज़मीन दी जानी चाहिए थी, लेकिन उन्हें यह अधिकार भी नहीं मिला.”24 अगस्त को मुख्यमंत्री सरमा ने कहा, “जैसे ही उन्हें बेदख़ल किया जाएगा, उनके नाम मतदाता सूची से हटा दिए जाएंगे.”लेकिन इन सबके बीच ज़रूरी दस्तावेज़ होने के बावजूद अमीना और करीमूल जैसे सैकड़ों परिवारों की ज़िंदगी अनिश्चितता के भंवर में फंस चुकी है.बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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